06 मई 2015

सुराखों से झॉंकती बेबसी...



यह सिर्फ एक तस्‍वीर नहीं है। यह आईना है सरकार का! यह आईना है, सरकार के कामकाज का! ! यह आईना है, सरकार के तमाम दावों का! ! ! यह आईना है, सरकार के लंबे चौडे बजट के आंकड़ों का! ! ! ! यह आंकडा है, हर दिन अखबारों में सुर्खियां बनने वाली सरकारी विज्ञप्तियों का! ! ! ! ! यह आंकड़ा है, पूरे सरकारी तंत्र का! ! ! ! ! !
जिस प्रदेश में सरकार तेंदूपत्‍ता बीनने वालों के ‘’पैर’’ का ख्‍याल रखने का ‘’दंभ’’ भरते हुए चरणपादुका बांटने का काम कर अपनी पीठ थपथपाने का काम करती है, उस प्रदेश में यह चप्‍पल अपनी कहानी खुद बयां कर रही है। यह किसके चप्‍पल की तस्‍वीर है, यह तो नहीं मालूम लेकिन कुछ दिन पहले एक पत्रकार साथी श्री रूपेश गुप्‍ता जी और श्री ऋषि मिश्रा जी के माध्‍यम से यह तस्‍वीर मेरे सामने आई तो मैं अवाक रह गया... इस चप्‍पल की तस्‍वीर को देखकर कई तरह के ख्‍याल आए लेकिन जब इस तस्‍वीर को मैंने अपने आसपास के, प्रदेश के, देश के मीडियाजगत से जुडे कुछ प्रबुद्धजनों के सामने प्रस्‍तुत किया तो उन्‍होंने इस तस्‍वीर के साथ अपनी भावनाएं जिस अंदाज में बयां की, उसने मुझे इस पर लिखने, उन प्रबुद्धजनों की भावनाओं को एक साथ पिरोकर एक पूरी पोस्‍ट लिखने मजबूर कर दिया।
अब यह सिर्फ तस्‍वीर नहीं है। एक पूरी कहानी बन गई है। सवाल अब यह नहीं रह जाता कि यह चप्‍पल किसकी है, सवाल यह है कि क्‍यों कर इस स्थिति तक इस चप्‍पल को सहेजा गया... सहेजा गया है तो यह भी तय है कि पहना भी गया होगा और पहना भी जा रहा होगा.... सवाल फिर कि इस स्थिति तक पहुंचने के बाद भी इसे पहनने वाला किस हालात में जी रहा होगा....
गौर कीजिए, ‘मैं भी इन चप्पलों देखकर हिल गया हूं। लगातार सोच रहा हूं कि इन चप्पलों को बचाने वाला कितना मजबूर होगा। क्या यह चप्पल किसी मजदूर की है। एक बेबस मां की भी हो सकती है यह चप्पल।’ तस्‍वीर पर इस तरह की टिप्‍पणी की श्री राजकुमार सोनी जी ने। सोनी जी राजधानी रायपुर में लंबे समय से पत्रकारिता में सक्रिय हैं। वे आगे और इस पर लिखते हैं, ‘भाई यह कोई मामूली चप्पल नहीं है। यह एक दर्द है जिससे मैं जिंदगी भर परेशान रहूंगा शायद।’ आगे और, ‘मुझे परेशान रहना भी चाहिए’, ‘एक क्रूर व्यवस्था की हकीकत भी ये चप्पलें’।’ सोनी जी ने इस तस्‍वीर में वह बात पकड़ी, जिसे शायद ही और किसी ने पकड़ी हो, वे लिखते हैं, ‘चप्पलों को गौर से देखो। इसे पहनने वाले ने इसके पट्टे को बचाने के लिए भी टांके लगवाए हैं। इस चप्पल का मजाक तो बिल्कुल भी नहीं बनाया जा सकता।’
नईदुनिया रायपुर के संपादक श्री रूचिर गर्ग जी इस तस्‍वीर को देखकर कलम चलाते हैं, ‘4 जी की ओर बढ़ते कदम’। लंबे समय से शिक्षकीय कार्य कर रहे और इस समय रायपुर में गरीब बच्‍चों की शिक्षा दीक्षा से जुडे श्री चुन्‍नीलाल शर्मा जी लिखते हैं, ‘ विवशताओं की अंतहीन दास्तां बयां करती चप्पले ...!!’ श्री संतोष जैन जी की कलम कहती है, ‘बहुत कठिन है डगर पनघट की’। श्री योगेश पांडे जी कम शब्‍दों में बात रखते हैं और लिखते हैं, ‘बेबसी की कहानी’। श्री सतीष कुमार चौहान जी कहते हैं, ‘प्रजातंत्र के सयानों के लिऐ एक सुन्‍दर सार्थक राष्‍ट्रीय पुरष्‍कार’। श्री संजय द्विेवेदी जी का दर्द देखिए, ‘ कुछ कहने में असमर्थ हूं! पीड़ा, दर्द सब इनमें समाया है! भाई... अच्‍छे दिन का सपना कहीं यही तो नहीं? 1947 से 2015 आ गया, ये चप्‍पल वैसी की वैसी क्‍यूं है?
अमर उजाला दिल्‍ली के वरिष्‍ठ पत्रकार श्री विनोद वर्मा जी की कलम भी कम शब्‍दों में बड़ी बात कहती है, ‘ज़मीन से जुड़े पांव’। नक्‍सल समस्‍या से जूझ रहे बस्‍तर के कांकेर में सहारा समय के पत्रकार श्री राजेश शुक्ला जी अपने ही अंदाज में कहते हैं, ‘एक सच्चे पत्रकार की होगी ये’। श्री विजय केडिया जी लिखते हैं, ‘चरण पादुका योजना की सरकारी चप्पल : पहनने के बाद अब मारने के काम आएगी’। श्री अभिज्ञान सिंह जी अंतरिक्ष में इंसानी हलचल से इस तस्‍वीर को जोडते हुए कहते हैं, ‘नई सदी की घिसी चप्‍पल, मंगल की ओर बढते कदम...। मूल रूप से छत्‍तीसगढ़ के निवासी और वर्तमान में देश की राजधानी दिल्‍ली में सहारा समय के पत्रकार श्री सुनील बजारी जी कहते हैं, ‘"अच्छे दिनों" की ओर बढ़ते छत्तीसगढ़ के कदम....’। नक्‍सलवाद से जूझ रहे बस्‍तर के जगदलपुर के एक भावुक पत्रकार रजत वाजपेई  इस चप्‍पल को, ‘5 बेटियो के बाप की चप्पल’ बताते हैं।  श्री विजय केडिया जी इस चप्‍पल पर एक राय और रखते हैं, ‘मंजिल यू ही नहीं मिलती, हौसला अभी बाकी है..!!!’।  श्री अजयभान सिंह जी छत्‍तीसगढ़ के नेताओं के ‘विकास’ पर व्‍यंग्‍य करते हैं, ‘मुझे तो ये छततीसगढ़ के किसी वर्तमान मंत्री की 2003 से पहले की हकीकत लगती है... नाम लेना शायद जरूरी नहीं’।
श्री यश जी छत्‍तीसगढ़ में हर साल चलने वाले ‘सुराज’ अभियान की वास्‍तविक तस्‍वीर दिखाने की कोशिश इस चप्‍पल के माध्‍यम से करते हैं, ‘ग्राम सुराज! शिकायतें देते रहिए, चप्पलें घिसते रहिए’। श्री राजेश दुआ जी लिखते हैं, ‘गौर से देखिए...ये वही चरण पादुकाएँ हैं जिनको सिंहासन में विराजित कर प्रदेश ही नहीं समूचे देश में एक बार फिर से रामराज स्थापित किया जा सकता है’। न्‍यायधानी बिलासपुर में इलेक्‍ट्रानिक मीडिया के पत्रकार श्री विश्वेश ठाकरे जी कहते हैं, चप्पल चिंतन, वो दिखाते रहे मुझे आसमानों के ख्वाब... इधर पैरों के नीचे से, जमीन भी ले गया कोई...’। श्री यश जी एक बार और शायराना अंदाज में लिखते हैं, ‘अर्जियां सारी हुक्मरानों को देता रहा, पांव चलते रहे और तलवे जलते रहे, कोई आस मिली न मिला आसरा, जो था वो भी गया, हम हाथ मलते रहे’। श्री हर्ष पांडे जी कहते हैं, ‘ क़दमों की चाल नहीं, जीवन का संघर्ष दिखाती हैं ये चप्पलें..., किसी मजबूर की तकदीर की तस्वीर दिखाती हैं ये चप्पलें.., सोचता होगा वह शख्स भी कि काश कमबख्त पेट न होता.., पेट भरने को दिन रात चलाती हैं ये चप्पलें।। श्री रतन जसवानी जी फिल्‍मी अंदाज में अपनी बात करते हैं, ‘चप्पलें घिसने से डर नहीं लगता साब, मिट्टी छिन जाने से लगता है।।’। श्री सुरेश महापात्रा जी लिखते हैं, ‘सुराज ढूंढते चप्पल घिसा, तलुए जमीं पर..’।
राजनांदगाँव में पत्रकार श्री संदीप साहू जी भी इस चप्‍पल को सुराज से जोड़ते हैं और लिखते हैं, ‘नया राज... नया सुराज... अच्‍छे दिनों की जमीनी चप्‍पल’। राजनांदगांव में ही पत्रकार श्री संतोष दुबे जी बडे़ भावुक अंदाज में कहते हैं, ‘यही है जीवन की सच्चाई संघर्ष करके अपने परिवार और अपना जीवन यापन करने वाले कई शख्स आज भी हैं, जिन्होंने एक खुशी, घर वालो के मुस्कान के लिए कभी पैरों के छालों की परवाह नही की। तंगी मे भी उसे सुकून है क्योंकि वही इंसान है जिसमें इंसानियत है। सिर्फ एक ही सपना मैं भले भूखा रहूं, मेरे बच्चो को कम से कम आधी ही सही पर मेहनत की रोटी नसीब हो। सलाम संघर्ष और ईमानदारी को’। श्री विनोद दास जी संक्षेप में लिखते हैं, ‘समृद्ध छत्तीसगढ़’। श्री सुप्रकाश  मलिक मिथू जी लिखते हैं, ‘बहुत कुछ कहना चाहती है ये चप्पल’। राजनांदगांव के पत्रकार श्री हफीज खान ने लिखा, 'मैं भी फटे चप्‍पल पहन चुका हूं, पर इससे कुछ कम फटे होने पर ही चप्‍पल बदलने का अवसर मिलता था'।
अपने व्‍यंग्‍य और रचनाओं के माध्‍यम से हमेशा सोचने पर मजबूर कर देने वाले वरिष्‍ठ साहित्‍यकार, पत्रकार श्री गिरीश पंकज जी के शब्‍दों में, ‘ये चप्पल नहीं एक बयांन है, कि आखिर किस हाल में, ये हिंदुस्तान है’। राजधानी के वरिष्‍ठ पत्रकार श्री जितेन्‍द्र शर्मा जी लिखते हैं, ‘ये चप्पल नहीं पूरी कहानी है एक जीवन के संघर्षों की’। इस तस्‍वीर को पहली बार देखने के बाद मेरे मन में जो आया वह यह था, ‘ये चप्पल गवाह है इस बात का कि मौजूदा दौर में इमानदारी ढूंढ़ने के लिए क्या कीमत चुकानी पड़ जाती है। कहावत भी है, चप्पल घिंस गए इस उम्मीद में कि काम हो जाए!!!
... और आखिर में ‘अखबारों के शीर्षक’ विषय में पीएचडी करने वाले वरिष्‍ठ पत्रकार डा. महेश परिमल जी के शब्‍द, ‘सुराखों से झॉंकती बेबसी...’

7 टिप्‍पणियां:

  1. मेरी चप्पल देख अचम्भा न कर।
    सरकार से काम कराते कराते चप्पल ही नहीं
    ये शरीर भी घिस रहा।

    चप्पल है घिसी दिखाई दे रही अंदर का टूटा दिल कैसे दिखाऊ

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  2. कभी एक तस्वीर किस तरह से परिचर्चा का विषय बन जाती है, इसे आपने सच साबित कर दिया अतुल भाई। बहुत ही बढ़िया प्रस्तुतिकरण। अच्छा लगा।
    महेश परिमल

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  3. इतनी गहन और व्‍यापक प्रतीकात्‍मक अभिव्‍यक्ति वाली तस्‍वीर काफी समय बाद देखी है। देखकर हृदय द्रवित हो गया। इस पोस्‍ट के लिए आपको बधाई।

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  4. मैं चप्पल हूँ...
    हाँ थोड़ा घिस गई हूँ...
    चलते चलते...
    कभी बच्चे के एडमिशन के लिए....
    कभी नल की परमिशन के लिए...
    आखिर में तुम्हारे पेंशन के लिए...
    बस थोड़ा घिस गई हूँ...
    चलते चलते...
    बेटी की शादी की तैयारी के लिए....
    कुछ फूल ढूंढते घर की क्यारी के लिए...
    आखिर में आखरी सवारी के लिए...
    काफी संभाला था तुमने...
    अपने पैरों को बचाने के लिए...
    जमीन से जुड़ते चले गए...
    अपना घर चलाने के लिए...
    हाँ मैं चप्पल हूँ...
    सच है मैं अब घिस गई हूँ....
    पर फिर भी मैं साथ रहूंगी....
    आखिरी सांस तक....
    पास रहूंगी... सुख दुःख में साथ रहूंगी..
    हाँ अब मैं पूरी तरह घिस गई हूँ...
    हाँ मैं चप्पल हूँ...
    अच्छा है मैं इंसान नहीं हूँ...
    थोड़ा घिस गयी हूँ.... इस लिए अब आसान नहीं हूँ
    हाँ मैं चप्पल हूँ.... # विपिन

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  5. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन धार्मिक मानसिकता के स्थान पर तुष्टिकरण की नीति में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...

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  6. बहुत खूब साथ में सुंदर अभिव्यक्ति कविता के रूप में विपिन ठाकुर जी की ।

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